Sunday 28 January 2018

दो प्रेमी

पर्वत के पीछे चम्बेला गाँव
गाँव में दो प्रेमी रहते हैं
बचपन से लगता कि ये गाना सिर्फ हमारे लिए है
गुदगुदी होती पेट में कि हाय किसी और को कैसे पता 
पर फिर लगता उंह
सपने में किसी रोज़ किसी फ़रिश्ते ने सुना होगा
और लिख दिया होगा
तब मुझे नहीं पता था कि फ़रिश्ते कौन होते हैं
क्यों होते हैं बस होते हैं इतना पता था
ये भी सुना था कि फ़रिश्ते अच्छा अच्छा ही करते हैं
मन की करते हैं
तब नहीं पता था कि उस फ़रिश्ते का नाम आनंद बख्शी था
और ये गीत मेरे पैदा होने के चार साल में ही लिख दिया गया था
तो क्या फ़रिश्ते ज्योतिषी भी होते हैं
हमें तो लगता इन दूर तक फैली कैमूर घाटियों के पीछे ही है वो गाँव
वो मधुर राग सा
वो पहली आग सा
पहली छुअन सा
बांसुरी की धुन सा एक अकेला गाँव
दुकेला इस तरफ था
झरिया के पास चट्टानों पर बैठे
कभी चाय कभी अमरुद और कुछ न हो तो नमक खटाई और लाल मिर्च चुभलाते
कभी लम्बे से झरने के नीचे तक गिरते शोर के साथ अपलक टकटकी लगाये देखते हम उस सुन्दर देवनुमा पहाडी को
सोचते जरूर कोई होगा वहां पर अकेला
दुकेले तो हम थे
मन ही मन न जाने कितनी बार जोर से आवाज़ लगाई है उस अनजान प्रेमी के लिए
कितनी बार चेहरे के गुलाबी होने, होठों के सूख जाने और हाथ पैर के ठन्डे होने तक पुकारते रहे हैं उसका नाम
जो हमें नहीं पता था
जो अनजान था
पर जो प्रेमी था ,
प्रेम के सातों सुर उस पहाडी के पीछे थे
जहाँ बहती थी सोन नदी
जहाँ के एक घर में रहती थी एक मोहाविष्ट लडकी
जहाँ के जंगल मोहक थे
जहाँ पर लिल्ली घोड़ों के झुण्ड के झुण्ड नज़र आते थे
और जहाँ नज़र आता था बहुतायत से लाल मखमली कीड़ा बीरबहूटी
अपनी हथेलियों पर उसे धर उसके नन्हें नन्हें कदमो कि गति से प्रेम की पहली सिहरन महसूस करते हम
छोटी छोटी चट्टानों. पर , दरारों में उग आये पीपल के छोटे पौधों में भी प्रेम महसूस करते हम
कोहरे की अभेद्य दीवार के पीछे मन में टिमटिमाते दिए की रौशनी में भी प्रेम महसूस करते हम ,
हम जो कि एक छोटी जगह की पैदाइश थे
कि हमारे सपने भी हमारी जिन्दगी की आज़माइश थे
कि हम तुरपनों में सीख लेते थे खुद को छुपाना
कि हम रसोई से सीखते थे मिलना मिलाना
कि हमारी कापियों के पिछले पन्ने हमारी रचनात्मकता थे
कि वहां बार बार आड़ी तिरछी रेखाओं में छुपे अक्षर हमारी सजगता थे
हम प्रेम छुपकर करते थे
हम दुःख खुलकर जीते थे ,
आज भी बजता है ये गीत रेडियो पर
अब भी लगता है कि ये हमारे लिए है
पर्वत के पीछे चम्बेला गाँव
गाँव में दो प्रेमी रहते हैं
पर अब हम प्रेम को साधना जानते हैं
जानते हैं कि वहां सच में दो प्रेमी रहते हैं
साथ साथ ,
तमाम सीखों समझदारियो को धता बताकर हम प्रेम अब भी जीते हैं
बूँद बूँद दर्द हर रोज़ पीते हैं
हर एकांत में हम उन्हें शोभा गुर्टू बना लेते हैं
याद पिया की आये
या फिर जगजीत सिंह
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कभी कभी कुमार विश्वास भी
कि फिर मेरी याद आ रही होगी
फिर वो दीपक बुझा रही होगी
और इस तरह हम तकियों को छाती में भींचे नींद का बहाना करते करते एक और रात गुजार देते हैं
प्रेम को कुछ और सहेज हम थोडा सा सो पाते हैं |

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