Sunday 28 January 2018

खोटते चना

खोटते खोटते चना
खोट लेती हूँ मन का एक हिस्सा भी
लहसुन मिर्चे वाला नमक मिला
एक गस्सा जीभ पर धरते ही गज़ब का चटकारा लगता है
गज़ब लगता है फुनगी का बिछोह मिटटी से 
तर कर देता है कौले इश्क में टूटन के पहले सूखेपन को
उन क्षणों को भी
कि जब रात रात भर रजाई का एक कोना भिगोया
अपने ही चेहरे को परत दर परत नमक किया
हर कॉपी के पिछले पन्ने पर वो नाम लिख लिख मरी
बार बार हथेलियों पर बेंत की मार सही
अकेलेपन को ओढ़ खुद को ख़ाक किया
हर खुशी के उजाले को रात किया
वो सब तिर आया
मन के जल में तन के जंगल में ,
अन्दर से सांकल लगा जार जार रोई फिर बेआवाज़
दीवारें खुरचीं
ज़मीन लोट पोट की
अँधेरे का इंतज़ार किये बिना ही बत्ती बुझा
ताक पर सहेजी ढिबरी जलाई
उसकी गंध उसके धुएं को भरती रही छाती में
सुख का दुःख और दुःख का सुख करती रही छाती में
अज़ब घालमेल कि तब थोड़ी आग भभकी और बह गयी पोर पोर से ,
सखियों संग अब जांता पीसने की बारी
खाली गेहूं नहीं उसकी बालियाँ भी पीसती हूँ
खुद को उससे एकमेक कर अलट पलट कर देती हूँ
अपने नहीं उसके होने को कोसती हूँ
अपना भुला उसका दुःख पोसती हूँ ,
कि ये दुःख ही है जो अल्हड इश्क का पहला जाया होता है ||

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