Friday 5 February 2016

सौदा

आँखों की चिमनियों में धुआँ है 
कि रात चूल्हे का उधार काट लाई थी 
पुरजा पुरजा हवाओं की बदमिजाजी से लङा 
थका और उदासी के चीथङे में गमककर सो गया 
मिट्टी ढेरियों की शक्ल में लुढ़कती रही 
तब तक
जब तक कि मेरी रूह के रेशे ने उसे बांध न लिया
और मै खुद धङकनो की उधारियों का हिसाब लगाते बेसुध पङी हूँ
कि मुझे जब भी याद करना तो रेशम के कीड़े सा जिसे कोकून के लिए खौलते पानी के इम्तिहान से गुजरना होता है
अपनी सासों का सौदा करके।।

प्रेम यूँ भी

रात बुुन रही है सुंदर कविता
अलाव की लुकाठी थामे,
मिट्टी के सीने में सिहरन है
कि आसमान बस ढह पङने को है,
पहना दी जाएगी यही कविता
मिट्टी और आसमान के मिलन से उपजी
लथपथ भोर की पहली किरण को
रात की विरासत की तरह,
जिसे ओढ़ पूरा वो गुनगुनाती फिरे
किसी चिड़िया सी चहचहाती फिरे
और कर दे रूमानी धूप को भी,
शाम संधिकाल है
रात फिर होगी
अनेकों कविताओं के अदभुत प्रसव के लिए
कि अब तो सूरज को भी इंतजार है मीठी पीङाओं का,
प्रेम यूँ भी होता है
मेरे हमनफज।।

Thursday 4 February 2016

प्रेम

वक्त थक रहा है उम्र का बोझ लादे
सफ़र लम्बा है शायद
कि अब वक्त को कूबड़ निकल आया है
कोई कोई आहट कराह उठती है
कोई टकरा जाती है
और उम्र का एक हिस्सा गिर जाता है वहीँ पर
चिपक जाता है सतह पर coaltar सा
कुरेदने में उम्र ज़ख्मी हो जाती है
वक्त उसे मायूसी व कुछ राहत से वहीँ छोड़ आगे बढ़ जाता है
ज़ख्म धीरे-धीरे ज़मीन की नमी में सीझता रहता है
पकता है परिपक्व होता है,
सुखाने की तमाम कोशिशे सूर्य को लाचार कर रही हैं
परन्तु ज़ख्म अब सूर्य पर साए सा है,
ज़ख़्मी उम्र मुस्कुराती है खिलखिलाती है
और अब तो करती है प्रेम भी
कि ज़ख्म अब उम्र के प्रेम का पैमाना हो गया है ,
शुक्रिया वक्त , तुम्हारी अनथक कोशिश
और तुम्हारे बदसूरत कूबड़ों के लिए
और इसलिए भी कि
प्रेम अब अपने सही अर्थों में सार्थक हो रहा है!!

मन

मन टूटता रहता है छोटे छोटे टुकड़ों में
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
उस रोज भी टूटा था 
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
ऐसे हर एक लम्हे में वो कछुआ हो जाती
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!

सुकून

सुकून टूटकर सितारों सा जा छिपा है
आसमां पर
कि मानो आसमां पर कोई मोरपंख छीजा पडा हो
लहूलुहान----- लम्बे अरसे से ,
ज़मीन की जड़ों से निकलकर कोई कीड़ा
लहू में फुंफकारता है
देह पीली पड़ जाती है
जबकी जहर का असर तो नीला होता है
महत्त्व भी नीला ही होता है
पर यहाँ रंगों का उलटफेर
दर्द की कवायद को कम नहीं करता
बढा देता है उलटे
कि जब मौसम इन्द्रधनुषों के निकलने का हो
ठीक उसी वक्त निकल आता है सूरज अपनी खोह से
अपने तीव्रतम ताप का पिटारा खोले
ठीक उसी वक्त तमाम घोंसले सुलगती राख का मटमैला आइना हो जाते हैं
और हो जाते हैं तमाम गीले ज़ख्म पपडियाये से
कि जैसे झरने से काँटों का कोई सोता फूट पड़े
कि जैसे हवाओं से साँसों का सम्पर्कसूत्र ही खो जाए
कि जैसे गुलाब से खुशबू का वास्ता ही न रहे
इस कदर की विभक्ति परिणामतः भयानक ही होती है
पर होती है ,
यूँ तो सुकून स्वीकार्य की परिणति है
संतोष का मित्र है
पर यही दो तत्व अक्सर वहां नहीं होते
जहां होता है प्रेम मेरे हमनफ़ज़ !!

उदासियाँ

उदासियों के अक्स से नकाब नोंचकर फेंक दी है
नज़र आते हैं पीड़ा से भरपूर कोटर कई
छिछला गयी चमडियों के फर्श
और ढेरों पसरी मनहूस काई,
इन्हें मिटाने की कोई शीघ्रता नहीं
वरन पाले जाने का जूनून है
एक और जिद्द भी
तकलीफों के गह्वर से सुकून के तलाश की,
इनका पाला जाना आवश्यक भी है
खुद को जीवंत कहे जाने का भ्रम सहेजने को
और मशहूर करने को खुद को खुद के जटिल अंतर्मन में,
बाह्य स्वप्न काईयों में तितलियाँ सहेजते हैं
अंतरतम के स्वप्न कोटरों में मधुमक्खी
दोनों मिलकर ही रचते हैं छिछलाई हुयी चमड़ियों में मीठी चंचलता
और ये सहज खेला अनवरत प्रवाहित होता है ढेरों कोकूनो की लुगदी के नीचे
ढका छिपा निरंतर इतिहास रचता,
उदासियाँ यूँ ही सम्मान के काबिल नहीं बनतीं
हमनफ़ज मेरे !!

Wednesday 3 February 2016

इश्क

उलझने की हद तक इश्क करो
तब तक जब तक की उनकी गांठें मजबूत न हो जाएँ
और उन पर एक अलीगढ़ी ताला कसकर न जड़ा जा सके
जब तक उन्हें उन आलों में सुरक्षित न रखा जा सके
जहां से उन्हें उतार पाना लगभग नामुमकिन हो 
या फिर उस अलगनी से कसकर न बाँध दिया जाए
जो कमरे के एकदम किनारे के अंधेरों में कितने ही सालों से
चुपचाप लटक रही है ऐसे ही चुनिन्दा किस्सों को संभाले ,
इश्क करो तब तक जब तक कि
बौराये आम की टहनी सूख कर किसी नवेले चूल्हे में भभक न पड़े
या फिर कदम्ब के ढेरों फल इमली के स्वाद में न बदल जाएँ
तब तक भी कि जब तक धूप अपना मीठापन मुझमे बिखेरने से बाज़ आये
हवाएं अपनी आवारगी छोड़ शराफत से एक जगह थम जाएँ
नदी बहते-बहते हिमालय के शिखर तक जा पहुंचे
और मेरा आँगन एक बार फिर कच्ची मिटटी की आतिशी महक से भर जाए,
इश्क करो तब तक भी कि
जब तक कि मेरी रूह सात जन्मो का सफ़र तय कर वापिस मुझ तक न लौट आये
कि जब तक मौसमों का सलीका हिमाकत में न बदल जाए
कि जब तक फूलों की खुशबू अब्र में न घुल जाए
कि जब तक ये महुए का नशा इंसानी उम्र की औषधि न बन जाए
तब तक ----- तब तक इश्क करो मुझसे
मेरे बेचैन मन !!

kavitayen

देर तक सूरज पका आज फिर
शक की देगी में
अंगीठी उम्र जितनी लम्बी थी
आंच सांस जैसी घुटन लिए कसी हुयी,
टुकड़ा-टुकड़ा चांदनी बदलती रही
कोयले में
सितारे भी चिंगारी होते रहे
पर मौसम बारिशों का था
सो धूएँ की ढेरों गंध सीली ही रही ,
सूरज बेशक खूब पका हो देर तक
पर स्याह नहीं हुआ
न ही फीका
कि इस बार उसकी मुस्कान पारिजात सी थी
खिली-खिली और बेतरह बिखरी,
इस बार शक ने उसे सुगन्धित कर दिया था
आश्वस्त भी प्रेम के प्रति
जैसे तुम्हें
मेरे हमनफ़ज !!



चुप्पियों के दौरान
कशमकश की रस्सी थामे
कोई उस पार उतर गया,
कोई रह गया वहीँ पर 
बनने को राह का पत्थर
या फिर शिलालेख सा ही कुछ,
अब ये वक्त को तय करने दो
उसकी नियमावली के अनुसार।।


कभी ठहरकर कभी बरसकर
वो लिख रहा है
बस चंद लम्हे मोहब्बतों के,
हर एक लम्हा उदास है कुछ जरा सा टूटा 
मगर खनकता,
उन्हें समेटूं उतार लूँ खुद में
जैसे कोई नदी उतरती समंदरों में
विलीन होने हदों से आगे,
फिर कोई बादल है आज भी
देखो इतना तनहा
था जैसे ठिठका वो बरसों पहले
उसी सङक के उसी मोङ पर
कि जैसे तुम हो।।



पारे से इतर भी एक पैमाना है
ताप जांचने का
निर्धारित करने का उसकी तीव्रता बिना अंकों के,
कमाल तो ये कि वो जांच के साथ ही इलाज़ भी है
कि वो तकलीफ के साथ सुकून भी है
सरगश्तगी की तमाम उलझनों के बाद भी ,
पर्याप्त होता है एक स्पर्श भर ही मौजूदगी का किसी के
कि जिससे घुल जाती है घुटन की ठंडी सफेदी
कि जिससे धुल जाते हैं आँखों के ढेरों जाले
कि जिससे पिघल जाते हैं दर्द के दावानल कई,
ताप कच्चे मोम सा हो जाता है फिर
जिससे रच लेते हैं हम ढेरों राहत से भरे भाव -अक्स
कल्पनाओं के क्षितिज पर मुस्कुराते ठहराव- अक्स
और कुछ थोड़े से रगों में सरगोशी के लिए बेचैन -अक्स ,
समाधान अक्सर आविष्कारों में नहीं प्राकृतिक सहजताओं में छुपे होते हैं !!












हवा भी

हवा भी सांस हो पाने से पहले
कुछ ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से
सीने में मेरे फिर वो उतरती है,
घिरी धङकन भी रहती है यूँ अब
संशय के घेरे में
घिरी श्रद्धा भी रहती है यूँ अब
जैसे अंधेरे में,
कहीं कोई जहर ही हो न शामिल
अब दुआओं में
कहीं ढेरों असर ही हो न कामिल
अपनी मांओं में,
ये डर लगता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को
यही चिंता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को,
कहीं भूले से भी न चूक हो जाये
कभी उससे
हवाओं के किसी दूजे के हिस्से को
मुझे सौंपे,
रहे घुलता फिर वो सदियों तलक
कालिख के दरिया में
सिसकता ही रहे सदियों तलक
आंसू के दरिया में,
कि जो मुझसे भी हो सकती है ऐसी भूल
फिर कैसे
कोई इंसान सारी उम्र रह सकता है पाकीजा
वही इंसान कि जिसको भी मैंने खुद बनाया है
वही इंसान कि धरती पे जो बस मेरा साया है,
इसी अहसास से शायद हवा पहले ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से सीने में मेरे फिर वो उतरती है।।

कवितायेँ

अनगिनत शामों के
तमाम हसीन लम्हों को कुचलकर
किसी ने लिख दिया है उसीसे
आंसू,
कहीं दूर कोई एक और शख्स
लिख रहा है अब तक
बस प्रेम
बच गयी यादों को थामे,
दोनों अपने -अपने दर्द को समेटे लङ रहे हैं
खुद ही खुद से।।


हर बात मेरी हर बार रही
आधी -आधी,
पूरे थे अहसासात मगर
पूरे थे सब जज्बात मगर,
मैं यूँ थी कि
जिस राह चली वो राह रही
आधी -आधी।।


मै प्रेम में हूँ
वो खुद से कहती
पर फिर पाती खुद को संभ्रम में ,
लम्बी बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रियाओं से 
अंततः बोझिल व् उदास हो वो थक गयी
और छोड़ दिया ये कहना ,

बरसों बाद बेहद अनपेक्षित
पर एक बार फिर उसने सुना खुद को कहते
मै प्रेम में हूँ
और अब आश्चर्य तो देखिये ,
इस बार वो सचमुच प्रेम में है
गहन गंभीर गरिमामय प्रेम की नदी में
हर सांस -सांस डूबी
एक संभ्रांत सुसंस्कृत महिला ,
क्या ये चरित्रहीनता है ?

कब

कहते हैं कि मेरा देश आज़ाद हुआ है
यूँ लगता भी है
कि ये लालकिला अपना है
ये ताजमहल ये मांडू ये पटना शहर अपना है
कि अपना है यूँ तो कश्मीर भी 
कन्याकुमारी और फूलों का शहर अपना है ,
ये राज अपना है तख़्त ओ ताज अपना है
सरकार अपनी है अधिकार अपना है ,
बरस बीते मगर न जाने कितने ये सोचते
ये ढूंढते करते खोज -बीन
कि जो लडे आजादी को वो कौन थे
किस प्रान्त किस भाषा के थे
भारत माँ के किस हिस्से किस आशा के थे ,
कि अब भी दिख जाता है कोई ये साबित करता हुआ
कि वो भी अपना है तब भी था
कि आज़ाद भारत ही जिसका अंतिम सपना था
कि जिसको कह देता है कोई विकृति से
कि अच्छा साबित करो
या फिर जाओ अपने प्रान्त और वहा ठोको दावा
और कोई दास हो उठता है आहत
होता है आहत एक और व्यक्ति भी
फिर उतार देता है चित्रपट पर
एक दास ...बेहद ख़ास दास की दास्तान सरेआम ,
आहत दास थोड़ी राहत थोड़ी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा उठते है
हंसकर कहते हैं
मेरे देश तू आज़ाद दिखता तो है पर महसूस कब होगा ??

कवितायेँ

कई दफे उदासी बड़ी सूखी सी महसूस होती है
खुरदरी और दरकी हुयी भी ,
हर दफे तोड़कर रख लेती हूँ खुद में हर टुकड़ा उसका
साल बीतने तक भर जाता है हर एक गोशा 
पूरे गले तक ....पूरे नशे तक ,
इंतज़ार रहता है बस सावन का कि जो बरसे
तो भिगो दूं भर दूं हर दुकड़ा हर दरार
कि डूब जाए हर उदास लम्हा फिर रूमानियत में
उम्र भर के लिए
भिगोती हूँ भरती भी हूँ हर बार
न जाने कैसे पर रह जाता है फिर भी अछूता
एक कोना मन का ,
कि उसके लिए बारिश शायद बेवजूद है बेमायने है
कि उसके लिए राहत नहीं बूँद भर भी
इस उम्र में या अनेक उम्रों तक
कौन जाने !!



कल बेहद उदास थी रात
सागौन से टिकी पडी रही खामोश
उधेड़ती रही खुद को सितारों के क्रोशिये से
तब तक जब तक कि ज़ख्म जलने नहीं लगे
तब तक भी कि जब तक उनमे कुछ सोंधापन नहीं जागा ,
लिपटी रही तमाम मीठे लम्हाती सिक्कों के साथ
बीच-बीच में टूटी भी फिर खुद ही खुद को जोड़ा खुद से
खुद ही खुद का स्पर्श किया और उनींदी हो चली
भोर की राहतें सूरज की मुस्कुराहट में तब्दील हो उतर रही थीं
अलविदा कहने हौले से ,
रात ओस में बदल गयी और छुप गयी
नुकीली घास के नीचे
कि मिटटी बांह खोले थी उसे खुद में संजोने को ,
रात के दर्द भर हिस्सा जल उठा मिटटी का
पर वो हंस पड़ी माँ के से सुकून से और थामे रखा उसे दिन भर
देती रही थपकियाँ ... सहलाती रही दुलराती रही
फिर कर दिया विदा शाम ढलने पर ,
कि आज फिर बेहद उदास है रात
कि आज फिर टिकी पडी रहेगी सागौन से
चुपचाप ...... खामोश !!

एक दफे हथेली पर एक ज़ख्म उभरा
हलकी लालिमा लिए पर सब्ज़
हलकी हलकी टीस देता
कभी मीठी तो कभी नुकीली सी
कुछ दिनों बाद उनमे एक बिंदु नज़र आया 
जैसे आँख हो किसी की
या फिर कोई बहुत छोटा सा कैमरा हो
जो हर पल कैद कर रहा हो मुझे
कि मेरे हर लम्हे पर जिसकी नज़र हो ,

एक रोज़ अचानक ही भूरा हो गया
फिर स्याह और स्याह फिर धीरे-धीरे सूख गया
रह गया उस जगह ज़ख्म की याद दिलाता
बस एक कौला मांसल गोल घेरा
और रह गयी कुछ बेहद टीसती यादें ,
तुम्हारा जाना इस कदर तो जरूरी नहीं था न
हमनफ़ज मेरे !!

इश्क

रात की उनींदी आंखों ने कुछ गुनाह लिखे
कर दिया मुहब्बत के हवाले उसे
रख दिया वैसे ही वक्त की लाइब्रेरी में
जिंदगी के बाकीे अहम दस्तावेजों के साथ,
अब गुनाह भी इन प्यासी गलियों का किस्सा है
अब शर्म भी इस अजीम अहसास का हिस्सा है,
सुबह की धूप ने कुछ और सियाह कर दिया है उसे
फेर दी है मनहूसियत की कूची उसपर
बोझ फलक तक है
तकलीफ हलक तक
पर निजात दिखती नहीं कहीं,
कि यूँ ही डूबे रहना है तमाम उम्र तक
सिर झुकाए
दर्द का वाहियात बोझ उठाये
लिखते रहना है एक गीत मुहब्बत का
जिसकी एक पंक्ति इबादत की हो
एक माफी की 

कवितायेँ

मीठी घूँट की तरह उतर आए हो
तीखी धूप में भी तुम
जब-तब मैं भर लेती हूं असीम राहत सा तुम्हें
चुभलाती रहती हूँ देर तक
जब तक घुलता रहता है तुम्हारा मीठापन 
अंतर्मन में अंतिम बूंद तक
कि जब तक रातें थककर सुबह नहीं हो जातीं
कि जब तक अंगडाईयां सुकून से नहीं भर जातीं
तब तक भी कि जब तक
सितारों से मुट्ठियाँ नहीं जगमगातीं,
कि यूँ तो शरबतों सा होकर हलक में
राहत हुए हो
जो कभी दामन हो जाओ मीठे चश्मे सा
तो करार आ जाये मुझको
हमनफज मेरे।।


सहती रही अरसे तक
फिर फट पडी धरती पूरी उत्तेजना से
समस्त वेग से ,
{हो सकता है विज्ञान में ये होना सुनिश्चित हो या सामान्य प्रक्रिया भी }
सहम गया इंसान
डरा रोया चिल्लाया गिडगिडाया
वो नहीं मानी
भरती रही फुंकार रह -रहकर
थर्राती रही इंसानियत हर बार मौत के खौफ से
लहू दिखाती रही फट गए देह और विनष्ट संसार भी स्वयं का ,
धरती नहीं पसीजी पर
दिखाती रही रौद्र क्रोध अपना
मचाती रही तबाही
इन सबके बीच कहीं छोटा ... और छोटा होता रहा इंसान
निरंतर किन्तु बड़ी होती रही प्रकृति अपनी सम्पूर्ण उर्जा के साथ !!
रहम ईश्वर !!!!!!!!!!

Tuesday 2 February 2016

अधूरी लड़कियां

अधूरी होती हैं वो लड़कियां
जिनके गीले ज़ख्मो से प्रेम नहीं रिसता
जिनकी आँखों में भाप नहीं बनती
जिनकी चाय बनते - बनते कई बार आधी नहीं होती
या जिनकी हथेलियाँ अक्सर रोटियों से नहीं जला करतीं ,
वो भी कि जिनकी आलमारी का एक कोना
किसी ख़ास किस्म की गंध का वाकिफ नहीं होता
एक ख़ास किस्म के दर्द का साझी नहीं होता
जिनकी डायरियां सहज सुलभ होती हैं
या जिनमे कविताओं को जीने का माद्दा नहीं होता ,
वो भी जो तितलियों को
पकड़ते-पकड़ते सहम कर छोड़ देती हैं
या फूलों पर मंडराती आवाज़ से खौफ खाती हैं
डरती हैं जो रात के सन्नाटे में अकेले सड़क पर टहलने से
या कई दफे जो खींच लेती हैं आंचल सलीके से
अजनबी परछाइयों को देखते ही ,
शाम होते ही घरों पर ताले लगा लेती हैं
होमवर्क करवाती हैं न्यूज़ सुनती हैं डिनर करती हैं
फिर सो जाती हैं सबसे नज़दीकी अनजान आदमी के साथ
सोती रहती हैं हर रात किसी वाजिब रस्म की तरह
खालीपन महसूस किये बिना ही ,
टूटकर जिए बिना समझा नहीं जा सकता प्रेम को
प्रेम के अधूरेपन को
जो हड्डियों में गांठों सा हो जाता है
जी लेने पर सीने में साँसों सा !!

Monday 1 February 2016

उदास कविता

आज कविता उदास है
कि कल तो रात भी ग़मगीन थी
बेहद ,
सीढियों से उतरकर भटक गयी थी आहट
ज़ख्मो की
सिलते वक्त मानो धागा कच्चा निकला हो
या पड़ गयीं हो गांठें उन्हें बांधते वक्त बीच में ही
लाल आंसू फिसल पड़े थे,
फिसल पडा था जैसे वक्त मुट्ठियों की दरारों से
टाइम मशीन की रफ़्तार लेकर
बच रही थी धूल बस और कुछ कण लम्हों के
और साथ ही बस रहा था विश्व का विशालतम जंगल
प्रेम के अभाव से
या यूँ कहें कि प्रेम के बचे रहे गए बीजकणों से
बेहद उर्वरा होकर भूरा जामा पहने,
बूँद-बूँद पीड़ा रेत हो रही थी
चमक रही थी कि सूरज मेहरबान था आज
कि नमी कि तमाम कोशिशों को नाकाम कर रहा था आज
बावजूद इसके कि उसकी किरणों में भी सिहरन थी बहुत
कि उसका अंतस भी डूबा हुआ था ,
आज कविता उदास है
कि उसके शब्दों में रंग मसले हुए फूलों के हैं
कि उसकी कलम तकलीफ की अस्थियों से बनी है
जो रच रही है लगातार दर्द को, दूरियों को, सहनशक्तियों को ,
कभी-कभी प्रेम यूँ भी मेरे हमनफ़ज !!

एकाकी नदी

उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।