Saturday 15 November 2014

अतीत

अतीत की रूह में बेशुमार कांटें हैं
बेशुमार छाले भी ,
ख़्वाबों की कच्ची लोइयां सिंकते-सिंकते सख्त हो गयीं हैं
सख्त हो गया है बिछड़ा मौसम भी 
पीछे रह गए रेत के घरोंदों में फैले हैं ढेरों मखमली कीड़े
छूते ही आदतन सिकोड़ लेते हैं खुद को
खुद को सहेजे रखते हैं विरासत की तरह शाइस्तगी से
बेमुरौव्व्ती से भी ,
राह की दूरियां सदियों के हिसाब से बढ़ती रहीं
हर घटता फासला सुकून को कुछ और दूर कर देता
हर कदम ज़मीन दोगुना होती जाती
खलिश सौ गुना
काली सडक भी काली लकीर सी हो उठती
बजाय काला टीका होने के ,
पर्दों के पीछे बहुत सलाहियत थी देखने की
सामने बेजारी का नाटक
बेचैनी की तमाम जिद्द के बावजूद भी
हर लम्हा अपनी शिकायत करता
अना पाबंदियों की मिसाल बनती जाती
बस टूटता रहता मासूम वक्त गिट्टियों की तरह
इमारत बनते-बनते खंडहर होता रहा
चुभती रही उसकी नोक हर ज़र्रे में बेख़ौफ़ बेपरवाह सी ,
इस कदर कि रूह रो पड़ी
सिसक पड़ी
फिर खामोश हो गयी एक रोज़
कायम है अपने मर्तबे पर तबसे अब तक !!

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