Monday 17 November 2014

अंतर्मन

हर किसी के पास है एक साक्षी
उदासी के सुरंग में छोर पर दिखती रौशनी सा
या पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर किसी सिद्ध मंदिर सा
जो उम्मीदें जगाता है
हौसला बढाता है और जिद्द भी पैदा करता है लक्ष्य पूर्ति के लिए ,

हर उस पल वो गवाह बनता है जब हिम्मत टूट रही होती है
जब ताकत गीली मिटटी सी हो रही होती है
वो ख़ामोशी से उसे उम्मीद के सांचे में उतार लेता है
गढ़ देता है हथेलियों के नर्म स्पर्श से
धीरे-धीरे मजबूत करता है फिर चुनौतियों की तपिश में ,

वो आइना बनता है अनगिनत गलतियों का फिर सुधार भी
उसकी हर भाषा रच देती है एक नया आयाम
सोपानो की श्रृंखला में हर कदम की सही परख है वो
तो उचित उत्तर भी ढेरों उलझनपूर्ण प्रश्नों का
जीवन के हर पन्ने पर इत्र सा महमहाता है
स्याहियों को इन्द्रधनुष के सुखद रंगों सा कर जाता है ,

हमारा अंतर्मन हमारा सच्चा दोस्त बन जाता है !!

Saturday 15 November 2014

प्रेम ..... अनेक

गैर जरूरी है तुम्हारा आना हर उदास लम्हे में
मायूसी बिखर जाती है
हर कोना कुछ और सिमट जाता है
दीवारें तक चुप लगा जाती हैं
हर कोशिश करती हूँ तब 
मै कहीं दूर चली जाऊं
निकल पड़ती हूँ यादों के जंगल में
तुम्हारा हाथ थामे .... यूँ ही भटकने को
थकने को --- थकते रहने को ,
उदासियों का डर नहीं अब
मुस्कुराहटें मेरे पास है !!

प्रेम ,
तुम विकट हो
हथेलियों में उग आते हो ,
छूने से डरती हूँ किसी को 
कहीं भूलवश संप्रेषित न हो जाए
मेरी दुर्दमनीय तकलीफ उसकी खुशियों में !!



पत्थरों के शहर में रूह सी कैद है सिसकियाँ
आहें गूंजती है जलतरंग सी
इंतज़ार हर बार अगली बार के लिए तैयार होता हुआ सा
और दुआयें
घंटियों सी बजती है और बिखर जाती है दूर तलक शब्दों में घुलकर ,
आओ ------ आ भी जाओ
मुझे प्रेम है तुमसे !!




उगता सूरज बाँध के मुट्ठी रख लूं भीतर 
रहूँ सुलगती मीठा -मीठा 
दिन-भर -हर क्षण !!



प्रेम

पीठ पर ढेरों कमल उगे हैं
हथेलियों में नर्म दूब
आस-पास जंगल है रजनीगंधा का ,
तुम पवन हो जाओ 
कि ये बेहतर है धूप होने से !!

शरारत

शाम के प्याले में शक्कर है सूरज वाली
रात उजाली ,
तपन यहाँ केसरिया है
और शर्म है आँखें काज़ल वाली ,
आओ इसको मिलकर थोडा कहवा जैसा कर लेते हैं
सबसे छुपकर बीच बादलों हम भी थोडा चख लेते हैं !!

अतीत

अतीत की रूह में बेशुमार कांटें हैं
बेशुमार छाले भी ,
ख़्वाबों की कच्ची लोइयां सिंकते-सिंकते सख्त हो गयीं हैं
सख्त हो गया है बिछड़ा मौसम भी 
पीछे रह गए रेत के घरोंदों में फैले हैं ढेरों मखमली कीड़े
छूते ही आदतन सिकोड़ लेते हैं खुद को
खुद को सहेजे रखते हैं विरासत की तरह शाइस्तगी से
बेमुरौव्व्ती से भी ,
राह की दूरियां सदियों के हिसाब से बढ़ती रहीं
हर घटता फासला सुकून को कुछ और दूर कर देता
हर कदम ज़मीन दोगुना होती जाती
खलिश सौ गुना
काली सडक भी काली लकीर सी हो उठती
बजाय काला टीका होने के ,
पर्दों के पीछे बहुत सलाहियत थी देखने की
सामने बेजारी का नाटक
बेचैनी की तमाम जिद्द के बावजूद भी
हर लम्हा अपनी शिकायत करता
अना पाबंदियों की मिसाल बनती जाती
बस टूटता रहता मासूम वक्त गिट्टियों की तरह
इमारत बनते-बनते खंडहर होता रहा
चुभती रही उसकी नोक हर ज़र्रे में बेख़ौफ़ बेपरवाह सी ,
इस कदर कि रूह रो पड़ी
सिसक पड़ी
फिर खामोश हो गयी एक रोज़
कायम है अपने मर्तबे पर तबसे अब तक !!

आस्तिकता

सांझ ढलते ही ईश्वर जन्म लेता है
स्वयं में -- सब में
स्वाभाविकतः सहज- सुन्दर
हर आस्था-अनास्था के भेद से परे ,
हम इसे खामखयाली कह सकते हैं
पर नकार नहीं सकते
बहस कर सकते हैं पर ख़त्म नहीं
प्रश्न विश्वास का हो सकता है
अविश्वास का भी
स्वीकार्य व् अस्वीकार्य का भी
परन्तु जिज्ञासाएं
मौलिक रूप में फिर भी सकारात्मक ही रहती हैं,
नियत समय पर तुलसी का दिया दिव्य होता है
उतना ही मनोहारी सुबह का मंत्रोच्चार
या अजान की आवाज़
या मोमबत्तियों का जलाया जाना
या फिर मत्था टेकना भी ,
कि भले ही संस्कारगत हो पर होता अवश्य है
ईश्वर को याद किया जाना
हर अच्छे-बुरे वक्तों में
कि एक वैज्ञानिक ने कभी कहा था बड़ी दृढ़ता से
मै आस्तिक नहीं हूँ ये ईश्वर की शपथ खाकर कहता हूँ !!

स्पंदन

पत्थरों के शहर में मृत्यु सहज प्राप्य नहीं
ढूंढना होता है
कि खुदा रहता है जीवन शिलाओं पर भी ,
चाहे -अनचाहे इसे जीना ही होता है 
पर शिला सा होकर नहीं
कि अपेक्षाओं में स्पंदन अनिवार्य है
किसी शर्त की तरह ,
इसलिए ही मेरे शहर में रूहों का बसेरा है !!

प्रेम में उदासी

प्रेम में उदासी लिखना सहज है,

मन के धागे खोले जा सकते हैं यहाँ
लिखी जा सकती हैं वो तकलीफें जो दरअसल तकलीफें नहीं होतीं
बस अप्राप्य सा कुछ होती हैं कामनाओं की बैसाखी पर ,
वो ढेरों चाहतें -आकांक्षाएं जो व्यक्ति कह नहीं पाता खासकर स्त्री
वो कहा जाता है इन तमाम कविताओं में
कई मायूस हुयी सतहों के साथ ,

फंतासी का ज़िक्र आवश्यक है
कि कभी भी प्रेम संपूर्णतः नहीं मिलता
मिल भी नहीं सकता कि सम्पूर्णता उब पैदा करती है
जबकि कुछ रह जाना ढेरों लालसा
यही लालसाएं प्रेम को जीवित रखती हैं ताज़ा रखती हैं ,

अतृप्त होना आवश्यक है प्रेम करने के लिए
इसलिए भी कि उसे महसूस कर सकें
हर बार परिपक्वता के उच्च से उच्चतर होते सोपानो के साथ
उन चाहतों के साथ भी जो हर दिन के साथ अपनी आकृति बदल लेते हैं
बदल लेते हैं संतुष्टि का पैमाना भी और नजरिया भी ,

प्रेम में ख़ुशी नहीं लिखी जा सकती
प्रेम में उदासियाँ लिखी जाती हैं ,
इन्हें लिखा जाना सहज है सरल है आवश्यक भी
प्रेम जीवित रखने के लिए !!