Thursday 14 August 2014

बच्ची

मै कभी बच्ची नहीं रही ..

अभी भी हो ..और रहोगी

अचानक ही हिलोर उठी उसमे फिर शांत भी हो गयी खुद ही .ऐसा नहीं था कि उसका बचपन कभी था ही नहीं पर हाँ बचपन जैसा नहीं था ...तब भी थी वो एक गंभीर उदास एकाकी जीव भर ही ....
चलो रहने दो ये कैसे मुमकिन है कि बचपन हो पर फिर भी न हो ..वो धीरे से मुस्कुरा दी और चली गयी बिना कुछ कहे .
रात भर कोई खिल -खिल कर हँसता और फिर रोने लगता कानो के ठीक पास ....बार बार उठती देखती झटकती चादर और पाती खुद को पसीने से तरबतर ....उठकर पंखा तेज़ करती ...उफ़ ये गर्मी ....बारिश भी तो नहीं हो रही कमबख्त कि पीछा छूटे वो बुदबुदाती फिर चारपाई की तरफ बढ़ जाती ...अचानक महसूस होता कमरे में कोई और भी है उसके अतिरिक्त ...आँख गडा-गडा देखती पर कोई नहीं दिखता ..कोई तो नहीं है ...पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि हर वक्त कोई पीछा करता रहता है ..सोते जागते उठते बैठते खाते पीते हंसी ठिठोली करते ...कौन है ये जो घूरता रहता है ....मन होता कभी कि खूब तेज़ दौड़ लगाऊं अँधेरे में वहां तक जहां से कुछ चमकीला सा दिखता है तो कभी लगता कि समय का चक्र पकड़ के उल्टा घुमाऊं पूरे जोर से ...फिर से वापस वहा तक पहुंचूं जहां एक बड़ा सा खिल्ला ठोका हुआ है मन के भीतर ..जहां जब कुछ कहूँ और कोई न सुने तो जोर से चिल्लाऊँ..इतना तेज़ कि फिर कोई और भी न बोल सके ...जहां सबकी तरह मेरे पास भी हों नए खिलौने या फिर कुछ भी ऐसा जो दोस्तों को दिखाकर रूतबा जताया जा सके ...उस ख़ुशी और संतोष कि तो तुलना ही नहीं की जा सकती पर जहां मै हमेशा दूसरी तरफ थी ...अब फिर से सिरदर्द बढ़ने लगा ...सोना ही होगा वरना खोपड़ी फट जायेगी ..आँख मूँद कर करवट लेती हूँ ....चारपाई फिर मिमियाती है ..फिर ऐसा लगा जैसे कोई फिक्क से हंस पडा रोने जैसा ......सपने भर सारी रात वो गुडिया ही सजाती रही माने बताती रही मा को कि चूड़ी गुलाबी चाहिए लाल नहीं ...लाल अब कोई नहीं पहनता ...मांग टीके में कोई हरा रंग भी भरता है क्या .... साडी भी चटक गुलाबी ...माँ सब करती ...यही इकलौता सुख उसके बचपन का .....उफ़ पंखा इतनी आवाज़ क्यों करता है ..दिखाना ही पडेगा ....तभी ड्राईवर आया अन्दर पिता का सामन लेकर ...वो समझ गयी पिता आ गए हैं ...अब यहाँ रहना बेकार ...वो चिल्लायेंगे कुछ कहेंगे मा को और फिर मा जवाब देगी और दोनों में लड़ाई शुरू ...कितना लड़ते हैं ये लोग ..क्यों लड़ते हैं वो नहीं समझ पाती पर वहां से खिसक लेती ..पिता से डर लगता उसे ...पहले नहीं लगता था पर उस दिन जो उसने मजाक में पौधा उखाड़ दिया तो पिता कितने गुस्से हो गए ..बरामदे में पटककर पैर से चेहरा दबा दिया ....बहुत जोर से दर्द हुआ ..सैंडल जो पहनी थी उन्होंने ..उतार देते ..कम से कम कान तो न कटता और न ही इतना खून निकलता ...उस दिन भाइ बहुत जोर से चिल्लाये पिता पर ..बड़ा अच्छा लगा ...जब पिता ने भी तुरंत अपना पैर हटा लिया और चुपचाप बाहर चले गए .....उसे लगा कि शायद पिता भाइ से दबते हैं ...उनके सामने वो कुछ नहीं कहते ..कहते तो हैं ही पर ज्यादातर नहीं ....उसने सोचा कि अगर अब पिता ने कभी उसे मारा तो वो भाइ से शिकायत करेगी पर कुछ ही दिनों में वो भ्रम भी टूट गया जब पिता ने उसे बिजली वाली लम्बी तार को मोड़ मोड़कर छोटा बनाकर उसे पीटा था ....एकदम छनछना गयी थी वो ..चमड़ी उधड आई थी ...केवल इस बात पर कि पिता ने मा के सिर पर लोहे की सरिया से मारा था और उसने मा को कसकर रोते हुए पकड लिया और पूछा था कि आपने क्यों मारा ......उस समय भाई नहीं थे पर बाद में जब आये तो उसने भाइ को भी मजबूर ..कसमसाकर रोते हुए देखा था ...उसे लगा भाई भी शायद पिता का कुछ नहीं कर सकते ..वो सबसे दूर--दूर रहने लगी ....न न ऐसा नहीं कि वो खेलती कूदती नहीं या उसके दोस्त वगैरह नहीं थे ...सब था पर कहीं न कहीं वो उन सब से छुपती-छुपाती रहती कि कहीं कोई कुछ पूछ न ले और उस पर भी अगर कोई पूछता कि कल तुम्हारे घर से रोने की आवाज़ आ रही थी या फिर तुम्हें चोट कैसे लगी या फिर तुम्हारी मा के चेहरे पर ये निशाँ कैसा ...वो एकदम भौंचक सी हो जाती मानो काटो तो खून नहीं कि इसे कैसे पता या फिर क्या जवाब दूं ..वो धीरे-धीरे सबसे कटने लगी हालांकि मा ने कुछ बहाने तैयार करवाए थे जैसे पढाई नहीं की तो भाई ने मारा या फिर मा फिसल कर गिर गयीं या फिर ..या फिर ...या फिर .........उफ़ फिर से ये कौन हंसने लगा खिल-खिल कर कान के पास बिलकुल रोने जैसा ....अब बर्दाश्त नहीं होता और हलके हलके नींद के झकोरे उस पर छाने लगे .

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