Monday 22 July 2013

प्रकृति की पीड़ा

प्रकृति
जीवंत---खुशमिजाज़
जिसकी रगों तक में किलकती थी मुस्कान ,

एक रोज़ कुछ देखा उसने और ठिठक गयी 
जंगल के ठीक सामने था एक विशाल पारदर्शी दर्पण 
बड़ी शिष्टता से अपलक निहारता हुआ ------उसे ही
उसके तीव्र नज़रों की तासीर प्रकृति में समाने लगी
आहिस्ता-आहिस्ता -------वो सिहर उठी ,

वो जब भी उसे देखती -----दर्पण हौले से मुस्कुरा देता
या फिर अपनी तीक्ष्ण-व्याकुल दृष्टि से उसे भेद देता
दोनों ही स्थितियां असहनीय थीं
पर मीठी गुनगुनी भी
कठिन था उसे सह पाना
पर नितांत असंभव भी -------विलग होना ,

जाने कैसे प्रकृति दर्पण संग एकाकार हो गयी
निःशब्द -------अछूती
बेचैनी इतनी कि सम्पूर्ण कोशिश भी हार जाती संयम में 
पर फिर उतनी ही तीव्रता से अनुभव होता ---खुद का लगभग अपरिचित होना भी
दोनों फिर दो इकाई से हो जाते ,

सालों बाद एक दिन दर्पण से आंसू टपका
मोहाविष्ट सी प्रकृति स्तब्ध रह गयी
दर्पण अचानक ही फट पडा --गगनचुम्बी विस्फोट के साथ
किरचियाँ दूर-दूर तक बिखरीं -----पर अधिकांशतः प्रकृति की नसों में ,



अब उसने जाना कि  ये एक स्वप्नदर्पण था
समाहित होने की चेतना के साथ ही बिखर गया
पर फिर भी जीवित ही रहा उसमे
ये सत्य पूरी क्रूरता और निर्ममता के साथ उसमे पसरने लगा
प्रकृति की पगडंडियाँ अब पथरीली और काँटों से भरी होने लगीं ,


एक रोज़ उसे अपनी पगडंडियों में विचलन नज़र आई 
मिटटी में असंख्य दरारें थीं 
इनमे किर्चियों के आंसू मिली हल्दी जैसी रंगत वाले अनगिनत बीज थे 
अपना पूरा विस्तार चाहते थे ,

खालीपन की पीड़ा से जूझती प्रकृति ने शीघ्रता से उन्हें खुद में बो दिया
भरते जाने के अजीब से सुकून के साथ
बेशक इसके लिए उसे खुद को लहुलुहान ही क्यों न करना पडा
ज़ख्म रिसता रहा -----बीज पनपता रहा
और अब एक सुनहरी लता आकार ले रही थी
अपनी सम्पूर्ण सुन्दरता और विलक्षण गुणों के साथ
ये अमर बेल थी ,



इसका  निरंतर विस्तार प्रकृति के लिए घातक था
वो छटपटाती रही
असीम बेचैनी ----अथाह तकलीफ
पर मौन भी  ------अनंत
वो सहती रही ----कि बड़ी राहत थी इसमें
ज़िंदा रहने की एकमात्र वजह भी ,

कुछ दिनों बाद उसे संजीवनी का एक पर्वत नज़र आया
जीवन की समस्त उर्जा से भरपूर
अपनी हथेलियाँ उसकी ओर बढाए ---- बड़ी उम्मीद से ,

इस बार प्रकृति बड़ी संजीदगी से नियंत्रित रही
कि एक तकलीफ अब भी पल रही थी उसमे
कि किसी का होना उसमे अटक गया था
कि अपने खालीपन की पीड़ा से उसे एक खुशबू सी आती थी
अजनबियत के तमाम दावों को खारिज करके
जो बड़ी जानी-पहचानी सी थी ----खुद की साँसों में घुली हुई सी ,

पर्वत की सज्जनता उसमे अपराधबोध जगा रही थी
पर चाहकर भी वो अपनी नसों में पनपती अमरबेल को नहीं उखाड़ पायी
कि एक के स्पर्श की चाहत दूसरे के स्पर्श के दरमियाँ किर्चियों सी ज़िंदा रही !!




















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