Monday 8 October 2012

हौसला

चलो सूरज के कुछ गोले बनाएँ
रख दें उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां सपने अंधेरे मे खड़े हैं मुंह बिसूरे
जहां खुशियाँ फकत इक नाम भर हैं ,

कोई टोली जो गुजरी थी कभी जब जुगनुओं की
तो माँ ने यूं कहा था कसमसाकर
कि बेटा देख ये ही रौशनी है;
यही उम्मीद है ,जरिया है ,हासिल है हमे जो
बढ़ाती हौसला कि वो (खुदा ) नहीं गाफिल है हमसे
बड़ी बेबस सी थी मुस्कान तब उन आसुओं की
जगा था हौसला तब ही मेरी भी कश्मकश मे ,

भले ही हाथ मेरे जल ही जाएँ
बेतरह ये गल ही जाएँ पिघल ही जाएँ
नज़र आए भले ही ठूंठ फिर भी ,

बनाऊँगी मै सूरज को ही जरिया रौशनी का
रख दूँगी उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां इस रौशनी मे वो हँसेंगे -मुस्कुराएंगे
गले मिलकर हजारों खिलखिलाएंगे
पूरे करेंगे पल रहे सपने
जिएंगे वो भी फिर इंसान जैसे
मुकम्मल होंगे जब अरमान उनके ,

होना भी तभी सूरज का यूं साकार होगा
खुशियों मे भी जब उसका कहीं आभार होगा ,

चलो सूरज के कुछ गोले बनाएँ
रख दें उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां पगडंडियाँ मंजिल की  स्याही मे खड़ी थीं
जहां अब रौशनी मुस्कान कि हर ओर होगी !!


            अर्चना राज








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