Tuesday 7 August 2012

अब तक

हसरतों की शाम का वो एक ख़ास लम्हा
आज भी मौजूद है वैसे ही तुम्हारे कमरे में
जब तुम्हारा स्पर्श कुछ कदम चलकर ठिठक सा गया था हवा में
और मेरा इंतज़ार भी वैसे ही जस का तस है
तुम्हारे कमरे की दीवार से सटकर ठहरा हुआ सा ,

नदी की वो रवानी भी मौजूद है हममे अब तक अपनी पूरी सिहरन के साथ
जब तुमने एक पत्ते पर हमारा नाम साथ- साथ लिखकर
बहा दिया था मेरी तरफ बड़ी शिद्दत से
जिसे छूते ही मै दरिया सी हो गयी
और मुझे देखकर तुम रेत से होने लगे थे ,

चांदनी रात की तमाम बेचैनियाँ भी मौजूद हैं हममे
जब वो धरती के हर इक गोशे को रौशन कर देता है आहिस्ता से चूमकर
और तब सारी कायनात रूमानियत से लबरेज़ हो जाती है
और बेहद अनियंत्रित भी सिवाय मेरे और तुम्हारे ,

पर हमारी ख़ामोशी भी अब तक वैसे ही है
जैसे किसी सरहद की रवायत हो या मजबूरी भी
कि  जिसका टूटना लाजिमी तो है
पर होना उससे भी ज्यादा जरूरी !!




                अर्चना राज 

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