Friday 6 April 2012

उलझन

ठहरी हुई दो आँखों की  तासीर
अब भी जगा देती है मुझमे वो तमाम हलचल
जो मुझे लगा था मै वर्षों पीछे छोड़ आई हूँ,

उन दो अदृश्य कदमो की आहट भी सुनाई पड़ती है मुझे
जो मेरे पीछे न जाने कितने पलों की परछाई में बदल जाती थी
जब भी मै भटकती थी यहाँ से वहां अनायास ही ...बेमकसद ,

थमी हुई हवाओं की सरहद
अब भी मौजूद है हमारे बीच सदियों के फासले सी
पर तुम्हारा स्पर्श महसूस हो ही जाता है मुझे
तुम्हारी भिंची मुट्ठियों मे
जो तुमने पलटकर जाने से पहले टांक दिया था
मेरे दर्द के आसमान पर सितारे सा ,

तुम्हारे अक्स में झलकती वो जिद्द भी
मुझे प्रश्नों के सिहरन से भर देती है
जो बार - बार तुम्हें मुझ तक लाती तो रही थी
पर हर  बार तुमने खुद को थाम रक्खा था पूरी शिद्दत से
न जाने क्यों ,

तुम्हारे अहसासों की धूप
जिसे टुकड़े-टुकड़े जोड़कर एक साये में तब्दील कर दिया है मैंने
अब भी भर देता है मेरी सर्द तन्हाई को
अपनी बेचैन गुनगुनी तपिश से ,

तुम अब भी मुझमे ही धडकते और बिखरते हो
सिमटने और खुद को संयमित करने की
अनेकों कोशिशों के बावजूद भी;
और तब मै उस बर्फीले पहाड़ सी हो जाती हूँ
जो लगातार पिघलता तो है
पर कभी भी पूरी तरह दरिया नहीं बन पाता,

यही कशमकश धीरे-धीरे मुझे तुम्हारी
और तुम्हें खुद की तल्ख़ उलझनों में
बदल दिया करती है
हमनफज मेरे !!



                  अर्चना "राज "






































No comments:

Post a Comment