Monday 19 March 2012

सप्तपर्णी

सप्तपर्णी के सातों पत्ते
तुम्हारे अदृश्य नाम की तपिश से भी
सुलगने से लगे हैं ,
फिरती रहती है हर वक्त
मेरे आस-पास
उन पत्तों की चिकनी चमकीली
पर सहमी सूरत ,

उसकी छाँव में बैठे हुए 
मैंने ही तो लिखा था
 हर एक पत्ते पर तुम्हारा नाम
अनायास ही
बस अपनी उँगलियों के हलके दबाव से ,

सहलाए जाने की नमी ने ही बस उसको संभाल रक्खा है
वरना तो वो कब का झुलस गया होता ,

तुम्हारे नाम की तपिश को झेलना भी क्या आसान होता है
सम्पूर्ण ताकत भी चुकने लगती है
तुम्हारे नाम के  अहसास को  जीते रहने में ,

अक्षरों की रेखाएं तो
लिखते वक्त ही सुलग उठी थीं
पर बेहद मीठे अहसास भी जन्मे थे
बिखर गए थे जो मेरे अंतर्मन तक
और मै सराबोर हो गयी थी उसकी  नारंगी तपिश में ,

अधमुंदी पलकों से देखा मैंने
उन पत्तियों को कंपकंपाते हुए
और थाम लिया फिर इसके सहमेपन को
अपनी हथेलियों में भींचकर ,

तुम्हारे नाम की वो तप्त रवानगी
अब  मुझमे बिखरने लगी है
बेपनाह दर्द में डूबी मेरी आहें भी जिसे
अब लौटा नहीं सकतीं  ,
क्योंकि अब वो
मेरी हर संभव कोशिश के दायरे से बाहर है ,

तुम्हारा नाम
जो अब तक
सप्तपर्णी के चिकने चमकीले पत्तों की सतहपर ही
 दहकता रहा था 
उसकी आंच अब मेरे अहसासों में भी सुलगने लगी है 
हमनफज मेरे ....!!



                     अर्चना "राज "








































 

No comments:

Post a Comment